6वींं शताब्दी ई.पू. में गंगाघाटी में जहां एक तरफ साम्राज्यवाद का उदय हो रहा था,एक विशाल सुसंगठित साम्रज्य की नींव रखी जा रही थी, ठीक उसी समय, अनेक नए धार्मिक संप्रदायों का उदय हो रहा था। इस युग के करीब 62 धार्मिक संप्रदाय है। इनमें से कई संप्रदाय पूर्वोत्तर भारत में रहने वाले विभिन्न समुदायों में प्रचलित धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठान- विधियों पर आधारित थे। इनमें जैन संप्रदाय और बौद्ध संप्रदाय सबसे महत्वपूर्ण थे, और ये दोनों धार्मिक सुधार के परम शक्तिशाली आंदोलन के रूप में उभरे।
वर्धमान महावीर और जैन संप्रदाय
जैन धर्म के प्राचीनतम सिद्धांतों के उपदेष्टा तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं जो वाराणसी के निवासी थे। वे राज्य सुख को छोङ संन्यासी हो गए किंतु यथार्थ में धर्म की स्थापना
उनके आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की।
महान् सुधारक वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध का ठीक-ठीक समय निश्तित करना कठिन है। एक परंपरा के अनुसार वर्धमान महावीर का जन्म 540ई.पू. में वैशाली के पास किसी गांव में हुअा। वैशाली की पहचान उत्तर बिहार में इसी नाम के नवस्थापित जिले में अवस्थित बसाढ़ से की गई है। उनके पिता सिद्धार्थ क्षत्रिय कुल के प्रधान थे। उनकी माता का नाम त्रिशला था जो बिम्बिसार के ससुर लिच्छवि-नरेश चेतक की बहन थी। इस प्रकार महावीर के परिवार का संबंध मगध के राजपरिवार से था। उच्च कुलों से संबंध रखने के कारण अपने र्धम-प्रसार के क्रम में उन्हें राजाओं और राजसचिवों के साथ संपर्क करना आसान था। आरंभ में महावीर गृहस्थ्य जीवन में थे, किंतु सत्य की खोज में वे 30वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन का परित्याग करके संन्यासी हो गए। 12वर्षों तक वे जहाँ-तहाँ भटकते रहे। वे एक गांव में एक दिन से अधिक और एक शहर में पांच दिन से अधिक नहीं टिकते थे। कहा जाता है कि अपनी बारह काल की लंबी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी वस्त्र नहीं बदले किंतु जब 42वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया तो उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग ही कर दिया। कैवल्य द्वारा उन्होंने सुख-दुख पर विजय प्राप्त की। इसी विजय के कारण वे महावीर कहलाए और उनके अनुयायी जैन कहलाते है। कोसल, मगध, मिथिला, चंपा आदि प्रदेशों में घूम-घूम कर वे अपने धर्म का प्रचार 30वर्ष तक करते रहे। उनका निर्वाण 468ई.पू. में बहत्तर साल की उम्र में आज की राजगीर के समीप पावापुरी में हुअा था।
दूसरी परंपरा के अनुसार उनका देहांत 527ई. पू. में हुअा। परंतु पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर उन्हें निश्चित रूप से छठी शताब्दी ई.पू. में नहीं रखा जा सकता है। जिन नगरों और अन्य वासस्थानों से उनका संबंध था उनका उदय 500ई.पू. तक नहीं हुआ था।
जैन धर्म के सिद्धांत
जैन धर्म के पांच व्रत हैं : (1) अहिंसा या हिंसा नहीं करना, (2) अचौर्य या चोरी नहीं करना, (3) अमृषा या झूठ न बोलना, (4) अपरिग्रह या संपत्ति अर्जित नहीं करना,और (5) ब्रह्मचर्य या इन्द्रिय निग्रह करना। कहा जाता है कि इनमें चार व्रत पहले से चले आ रहे थे, महावीर ने केवल पाँचवाँ व्रत जोङे। जैन धर्म में अहिंसा या किसी प्राणी को न सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। कभी-कभी इस व्रत के विचित्र परिणाम दिखाई देते हैं,जैसे कुछ जैन धर्मावलंबी राजा पशु की हत्या करने वालों को फांसी पर चढ़ा देते थे। महावीर के पूर्व तीर्थकर पाश्र्व ने तो अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगो को वस्त्र से ढकने की अनुमति दी थी, पर महावीर ने वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का आदेश दे दिया। इसका आशय यह था कि वे अपने अनुयायियों के जीवन में और भी अधिक संयम लाना चाहते थे। इसके चलते, बाद में जैन धर्म दो संप्रदायों में विभक्त हो गया- श्वेताम्बर अर्थात सफेद वस्त्र धारण करने वाले, और दिगम्बर अर्थात नग्न रहने वाले।
जैन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है,पर उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है। बौद्ध धर्म में वर्णव्यवस्था की जो निंदा है वह इस धर्म में नहीं है। महावीर के अनुसार, पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च या निम्न कुल में होता है। महावीर ने चाण्डालों में भी मानवीय गुणों का होना संभव बताया है। उनके मत में शुद्ध और अच्छे आचरण वाले निम्न जाति के लोग भी मोक्ष पा सकते हैं। जैन धर्म में मुख्यतः सांसारिक बंधनो से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं। ऐसा छुटकारा या मोक्ष पाने के लिए कर्मकांडीय अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है, यह सम्यक् ज्ञान,सम्यक् ध्यान और सम्यक् आचरण से प्राप्त किया जा सकता है। ये तीनों जैन धर्म का त्रिरत्न अर्थात तीन जौहर माने जाते हैं।
जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित हैं, क्योंकि दोनों में जीवों की हिंसा होती है। फलतः जैन धर्मावलम्बियों में व्यापार और वाणिज्य करने वाले की संख्या अधिक हो गयी।
वर्धमान महावीर और जैन संप्रदाय
जैन धर्म के प्राचीनतम सिद्धांतों के उपदेष्टा तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं जो वाराणसी के निवासी थे। वे राज्य सुख को छोङ संन्यासी हो गए किंतु यथार्थ में धर्म की स्थापना
उनके आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की।
महान् सुधारक वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध का ठीक-ठीक समय निश्तित करना कठिन है। एक परंपरा के अनुसार वर्धमान महावीर का जन्म 540ई.पू. में वैशाली के पास किसी गांव में हुअा। वैशाली की पहचान उत्तर बिहार में इसी नाम के नवस्थापित जिले में अवस्थित बसाढ़ से की गई है। उनके पिता सिद्धार्थ क्षत्रिय कुल के प्रधान थे। उनकी माता का नाम त्रिशला था जो बिम्बिसार के ससुर लिच्छवि-नरेश चेतक की बहन थी। इस प्रकार महावीर के परिवार का संबंध मगध के राजपरिवार से था। उच्च कुलों से संबंध रखने के कारण अपने र्धम-प्रसार के क्रम में उन्हें राजाओं और राजसचिवों के साथ संपर्क करना आसान था। आरंभ में महावीर गृहस्थ्य जीवन में थे, किंतु सत्य की खोज में वे 30वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन का परित्याग करके संन्यासी हो गए। 12वर्षों तक वे जहाँ-तहाँ भटकते रहे। वे एक गांव में एक दिन से अधिक और एक शहर में पांच दिन से अधिक नहीं टिकते थे। कहा जाता है कि अपनी बारह काल की लंबी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी वस्त्र नहीं बदले किंतु जब 42वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया तो उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग ही कर दिया। कैवल्य द्वारा उन्होंने सुख-दुख पर विजय प्राप्त की। इसी विजय के कारण वे महावीर कहलाए और उनके अनुयायी जैन कहलाते है। कोसल, मगध, मिथिला, चंपा आदि प्रदेशों में घूम-घूम कर वे अपने धर्म का प्रचार 30वर्ष तक करते रहे। उनका निर्वाण 468ई.पू. में बहत्तर साल की उम्र में आज की राजगीर के समीप पावापुरी में हुअा था।
दूसरी परंपरा के अनुसार उनका देहांत 527ई. पू. में हुअा। परंतु पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर उन्हें निश्चित रूप से छठी शताब्दी ई.पू. में नहीं रखा जा सकता है। जिन नगरों और अन्य वासस्थानों से उनका संबंध था उनका उदय 500ई.पू. तक नहीं हुआ था।
जैन धर्म के सिद्धांत
जैन धर्म के पांच व्रत हैं : (1) अहिंसा या हिंसा नहीं करना, (2) अचौर्य या चोरी नहीं करना, (3) अमृषा या झूठ न बोलना, (4) अपरिग्रह या संपत्ति अर्जित नहीं करना,और (5) ब्रह्मचर्य या इन्द्रिय निग्रह करना। कहा जाता है कि इनमें चार व्रत पहले से चले आ रहे थे, महावीर ने केवल पाँचवाँ व्रत जोङे। जैन धर्म में अहिंसा या किसी प्राणी को न सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। कभी-कभी इस व्रत के विचित्र परिणाम दिखाई देते हैं,जैसे कुछ जैन धर्मावलंबी राजा पशु की हत्या करने वालों को फांसी पर चढ़ा देते थे। महावीर के पूर्व तीर्थकर पाश्र्व ने तो अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगो को वस्त्र से ढकने की अनुमति दी थी, पर महावीर ने वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का आदेश दे दिया। इसका आशय यह था कि वे अपने अनुयायियों के जीवन में और भी अधिक संयम लाना चाहते थे। इसके चलते, बाद में जैन धर्म दो संप्रदायों में विभक्त हो गया- श्वेताम्बर अर्थात सफेद वस्त्र धारण करने वाले, और दिगम्बर अर्थात नग्न रहने वाले।
जैन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है,पर उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है। बौद्ध धर्म में वर्णव्यवस्था की जो निंदा है वह इस धर्म में नहीं है। महावीर के अनुसार, पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च या निम्न कुल में होता है। महावीर ने चाण्डालों में भी मानवीय गुणों का होना संभव बताया है। उनके मत में शुद्ध और अच्छे आचरण वाले निम्न जाति के लोग भी मोक्ष पा सकते हैं। जैन धर्म में मुख्यतः सांसारिक बंधनो से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं। ऐसा छुटकारा या मोक्ष पाने के लिए कर्मकांडीय अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है, यह सम्यक् ज्ञान,सम्यक् ध्यान और सम्यक् आचरण से प्राप्त किया जा सकता है। ये तीनों जैन धर्म का त्रिरत्न अर्थात तीन जौहर माने जाते हैं।
जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित हैं, क्योंकि दोनों में जीवों की हिंसा होती है। फलतः जैन धर्मावलम्बियों में व्यापार और वाणिज्य करने वाले की संख्या अधिक हो गयी।